बाटला हाउस रिव्यू और जाने कितनी पसंद आई दर्सको को यह फिल्म
देश प्रेम के जज्बे को दर्शाने वाली फिल्म के लिए 15 अगस्त यानी आजादी के दिन यह फिल्म रिलीज़ हुए थी।इसी दिन का फायदा उठाते हुए जॉन अब्राहम ने निखिल अडवानी के निर्देशन में बनी बाटला हाउस को स्वतंत्रता दिवस पर रिलीज करने का फैसला किया था।
कहानी
इस कहानी की शुरुआत दिल्ली पुलिस पर फर्जी एनकाउंटर को लेकर मीडिया की तरह से न जाने कितने सवाल दागे जाते है। जिसका जवाब शायद ही पुलिस वालों के पास है। इसके बाद सीधे फिल्म पुलिस ऑफिसर संजय कुमार ( जॉन अब्राहम) के घर का होता है। जहां पर संजय और पत्नी नंदिता( मृणाल ठाकुर) के बीच जमकर लड़ाई हो रही हैं। जिसके बाद संजय अपनी पत्नी को घर छोड़कर जाने के लिए कहता है। इसके बाद फिल्म में सीधे आपको ले जाती है दिल्ली के जामिया नगर के एल- 18 बाटला हाउस। जहां पर जॉन अब्राहम पुलिस ऑफिसर संजय कुमार यादव की भूमिका में हैं और रवि किशन दिल्ली पुलिस के स्पेशल सेल के अफसर के. के वहां की तीसरी मंजिल पर रेड करने जाते हैं। वहां पर पुलिस की इंडियन मुजाहिदीन के संदिग्ध आतंकियों से मुठभेड़ होती है। इस मुठभेड़ में 2 संदिग्धों की मौत हो जाती है। इसके साथ ही 2 संदिग्ध मौके से भाग निकलता है। और तुफैल नाम का संदिग्ध पुलिस के हत्थे चढ़ जाता है। इसके साथ ही इस मुठभेड़ में के.के घायल हो जाता है। जिसकी बाद में हॉस्पिटल में मौत हो जाती है।
इस मुठभेड़ के बाद देश भर में आक्रोश भर जाता है। इससे फर्जी एनकाउंटर कहकर आम जनता, बड़े ऑफिसर से लेकर राजनितिक पार्टियां भी आरोप-प्रत्यारोप करना शुरु कर देती है। संजय कुमार की टीम पर बेकसूर छात्रों को मारने का आरोप लगाया जाता है। जिसके बाद उनकी टीम में न जाने कितनी परेशानियों को सामना करना पड़ता है।
वहीं दूसरी ओर संजय कुमार एक मानसिक बीमारी पोस्ट ट्रॉमैटिक डिसॉर्डर का शिकार हो जाते हैं। जिसके कारण उनकी जिंदगी में कई समस्याएं आ जाती है। अब पुलिस ऑफिसर संजय कुमार खुद को और अपनी टीम के साथ-साथ अपनी मैरिज लाइफ कौ कैसे बचाते हैं। इस बारे में जानने के लिए आपको फिल्म तो देखनी ही चाहिए।
रिव्यू: निर्देशक निखिल अडवानी की फिल्म की खासियत यह है कि ये कई परतों के साथ आगे बढ़ती है। इस एनकाउंटर के बाद पैदा हुए तमाम दृष्टिकोणों को वे दर्शाने में कामयाब रहे हैं। इन परतों में पुलिस की जांबाजी, अपराधबोध, बेबसी, उसकी दागदार होती साख, पॉलिटिकल पार्टीज की राजनीति, मानवाधिकार संगठनों का आक्रोश, धार्मिक कट्टरता, मीडिया के प्रोजेक्शन और प्रेशर पर लगातार डिबेट होती है। फिल्म में कई तालियां पीटनेवाले डायलॉग्ज हैं। जैसे एक सीन में संजीव कुमार यादव कहता है 'एक टैरेरिस्ट को मारने के लिए सरकार जो रकम देती है, उससे ज्यादा तो एक ट्रैफिक पुलिस एक हफ्ते में कमा सकता है।'
कहानी की खूबी यह है कि पुलिस को कहीं भी महिमामंडित नहीं किया गया है। पुलिस खुद अंडरडॉग है। जॉन द्वारा तुफैल बने आलोक पांडे को कुरान की आयत को समझाने वाले कुछ सीन बेहतरीन बन पड़े हैं। निखिल ने फिल्म में दिग्विजय सिंह, अरविंद केजरीवाल, अमर सिंह और एल के अडवानी जैसे नेताओं के रियल फुटेज का इस्तेमाल किया है। सौमिक मुखर्जी की सिनेमटोग्राफी बेहतरीन बन पड़ी है। निर्देशक ने फिल्म को बहुत ही रियलिस्टिक रखा है, जो कहीं-कहीं पर हेवी लगता है। फिल्म का क्लाइमेक्स और पुख्ता होना चाहिए था।
पुलिस अफसर संजीव कुमार यादव के रूप में जॉन अब्राहम की परफॉर्मेंस को अब तक की उनकी बेस्ट परफॉर्मेंस कहा जाए, तो गलत न होगा। उन्होंने संजीव कुमार जैसे पुलिस अफसर के रूप में उनके मानसिक द्वंद, अपराधबोध, बेबसी और जांबाजी को बहुत ही सहजता से दिखाया है। उन्होंने कहीं भी अपने किरदार को एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी हीरोइक नहीं होने दिया। मृणाल ने नंदिता को बखूबी निभाया है। रवि किशन के.के के रोल में असर छोड़ने में कामयाब रहे हैं। उनकी भूमिका को और विस्तार मिलना चाहिए था। डिफेंस लॉयर के रूप में राजेश शर्मा का काम याद रह जाता है। छोटे से रोल और 'साकी' जैसे आइटम सॉन्ग में नोरा फतेही जंचती हैं। तुफैल की भूमिका में आलोक पांडे ने अच्छा काम किया है। मनीष चौधरी, सहिदुर रेहमान, क्रांति प्रकाश झा जैसी सपॉर्टिंग कास्ट मजबूत रही है। संगीत की बात करें, तो तुलसी कुमार, नेहा कक्कड़ और बी प्राक का गाय हुआ गाना, 'साकी' रिलीज के साथ ही हिट हो गया था।
देखें कि नहीं
अगर आप जॉन अब्राहम के फैन है। इसके साथ ही रियलिस्टिक फिल्में देखने का शौक है तो इस फिल्म को जरुर देखें।
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