सारनाथ का इतिहास हिस्ट्री ऑफ सारनाथ इन हिन्दी | सारनाथ स्तूप का निर्माण किसने करवाया

सारनाथ का इतिहास  हिस्ट्री ऑफ सारनाथ इन हिन्दी | सारनाथ स्तूप का निर्माण किसने करवाया

सारनाथ का इतिहास – हिस्ट्री ऑफ सारनाथ इन हिन्दी

उत्तर प्रदेश के काशी (वाराणसी) से उत्तर की ओर सारनाथ का प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थान है। काशी से सारनाथ की दूरी लगभग 10 किलोमीटर है। सारनाथ का इतिहास और Sarnath का महत्व बौद्ध ग्रंथों के अनुसार यहां भगवान बुद्ध ने बौद्ध गया (बिहार) मे ज्ञान प्राप्त करने के बाद अपना पहला अज्ञात कौन्डिन्य आदि पूर्व परिचित पांचों साथियों को दिया था।

सारनाथ का अर्थ (Meaning of Sarnath)

सारनाथ का ओल्ड नाम ( Sarnath का प्राचीन नाम) ऋषि पतन तथा मृगदाव था। ऋषि पतन का अर्थ फाह्यान (चीनी यात्री) ने ऋषि का पतन बतलाया है, जिसका आशय है कि वह स्थान जहाँ किसी बुद्ध ने गौतमबुद्ध की भावी संबोधि को जानकर निर्वाण प्राप्त किया था। दूसरे नाम मृगदाव के पडने का कारण निग्रोध-मृग जातक में इस प्रकार दिया गया है कि-…..

किसी पूर्व जन्म में गौतमबुद्ध तथा उनके भाई देवदत्त sarnath के जंगलों में मृगो के कुल में जन्मे थे। और मृग समुदाय के राजा थे। उस समय काशी नरेश इस वन में मृगो का नियमित रूप से शिकार किया करते थे। राजा के इस नृशंस कार्य से द्रवित हो मृगो के राजा बोधिसत्व ने उनसे प्रार्थना की कि वे मृग हत्या बंद कर दे, और प्रतिदिन एक हिरण क्रम से उनके पास पहुंच जाया करेगा
राजा ने उनकी प्रार्थना मान ली और यह क्रम निर्बाध चलता रहा। संयोग से एक दिन देवदत्त के समूह की एक गर्भवती हिरणी की बारी आयी, उसने बोधिसत्व से अपने गर्भ की रक्षा करने की प्रार्थना की, मृगराज बोधिसत्व उसकी प्रार्थना से अत्यंत द्रवित हुए, और उसके स्थान पर स्वयं काशी नरेश के पास चले गये। और वास्तविक स्थिति बताकर अपने आप को वध के लिए प्रस्तुत किया।
काशी नरेश उनकी इस दयालुता से इतने प्रभावित हुए उन्होंने यह कहकर कि:- मनुष्य के रूप में होते हुए भी वास्तव में “मैं मृग हूँ” और आप “मृग के रूप में होते हुए भी मनुष्य है” उन्होंने उसी समय से उस वन में मृग हत्या करना सदैव के लिए बंद कर दिया। और वन को मृगो के लिए उनकी इच्छा अनुसार विचरण के लिए छोड़ दिया। इसलिए इस स्थल का नाम “मृगदाव” अर्थात मृगो का स्थान पड़ा। जनरल कर्निघम के अनुसार सारनाथ के आधुनिक नाम “Sarnath” की उत्पत्ति “मृगो के नाथ” अर्थात गौतमबुद्ध शबद से हुई है।

सारनाथ का ओल्ड नाम ( Sarnath का प्राचीन नाम) ऋषि पतन तथा मृगदाव था। ऋषि पतन का अर्थ फाह्यान (चीनी यात्री) ने ऋषि का पतन बतलाया है, जिसका आशय है कि वह स्थान जहाँ किसी बुद्ध ने गौतमबुद्ध की भावी संबोधि को जानकर निर्वाण प्राप्त किया था। दूसरे नाम मृगदाव के पडने का कारण निग्रोध-मृग जातक में इस प्रकार दिया गया है कि-…..

किसी पूर्व जन्म में गौतमबुद्ध तथा उनके भाई देवदत्त sarnath के जंगलों में मृगो के कुल में जन्मे थे। और मृग समुदाय के राजा थे। उस समय काशी नरेश इस वन में मृगो का नियमित रूप से शिकार किया करते थे। राजा के इस नृशंस कार्य से द्रवित हो मृगो के राजा बोधिसत्व ने उनसे प्रार्थना की कि वे मृग हत्या बंद कर दे, और प्रतिदिन एक हिरण क्रम से उनके पास पहुंच जाया करेगा।
राजा ने उनकी प्रार्थना मान ली और यह क्रम निर्बाध चलता रहा। संयोग से एक दिन देवदत्त के समूह की एक गर्भवती हिरणी की बारी आयी, उसने बोधिसत्व से अपने गर्भ की रक्षा करने की प्रार्थना की, मृगराज बोधिसत्व उसकी प्रार्थना से अत्यंत द्रवित हुए, और उसके स्थान पर स्वयं काशी नरेश के पास चले गये। और वास्तविक स्थिति बताकर अपने आप को वध के लिए प्रस्तुत किया।
काशी नरेश उनकी इस दयालुता से इतने प्रभावित हुए उन्होंने यह कहकर कि:- मनुष्य के रूप में होते हुए भी वास्तव में “मैं मृग हूँ” और आप “मृग के रूप में होते हुए भी मनुष्य है” उन्होंने उसी समय से उस वन में मृग हत्या करना सदैव के लिए बंद कर दिया। और वन को मृगो के लिए उनकी इच्छा अनुसार विचरण के लिए छोड़ दिया। इसलिए इस स्थल का नाम “मृगदाव” अर्थात मृगो का स्थान पड़ा। जनरल कर्निघम के अनुसार सारनाथ के आधुनिक नाम “Sarnath” की उत्पत्ति “मृगो के नाथ” अर्थात गौतमबुद्ध शबद से हुई है।

हिस्ट्री ऑफ सारनाथ (Sarnath history in hindi)

Sarnath history की शुरुआत गौतमबुद्ध जी के यहां पर दिये गये अपने प्रथम उपदेश के समय से प्रारम्भ होती है। परंतु इस समय से लगभग 300 वर्ष बाद तक की history का न कोई पता है, और न ही उस समय के कोई स्मारक सारनाथ खुदाई स्थल पर ही मिले है। संम्भवतः इस काल में थोडे बहुत भिक्षु जो यहाँ रहते थे, वे पर्णकुटियों से ही काम चलाते थे। सारनाथ मे सबसे प्राचीन स्मारक जो अब तक की खुदाई में प्राप्त हुए है। वे मौर्यवंशी सम्राट अशोक के समय के है। जिनमें से चार प्रमुख है:–

  • 1. सारनाथ का अशोक स्तंभ जो मुख्य सारनाथ मंदिर के पश्चिम की ओर अपने मूल स्थान पर आज भी स्थित है।
  • 2. धर्मराजिका स्तूप सारनाथ, जो पिलर ऑफ अशोक के दक्षिण की ओर स्थित है। और अब नीवं ही भर बच रही है।
  • 3. एक ही पत्थर में काट कर बनाई गई वेदिका जो मुख्य मंदिर के दक्षिणी भाग में रखी हुई है।
  • 4. एक गोलकार मंदिर जिसकी अब भी केवल नीवं ही बाकी है।

सम्राट अशोक के बाद उसके उत्तराधिकारी इतने शक्तिशाली न रहे। अतः बौद्ध धर्म धीरे धीरे लुप्त होने लगा था। इसी समय शुंगों का आधिपत्य हुआ जो वैदिक धर्म को मानने वाले थे। हालांकि शंगु राजाओं से संबंधित कोई स्मारक यहां से नहीं मिला है। परंतु श्री हार्गीब्स को सन् 1914-15 की खुदाई में इस युग की बहुत सी पुरातात्विक साम्रगियां प्राप्त हुई थी, जो उस काल के Sarnath की उन्नति की ओर संकेत करती है। ईसवीं सन् की प्रथम शताब्दी में Sarnath कुषाण नरेश कनिष्क के आधिपत्य मे आया। यह कुषाण वंश का सबसे प्रतापी राजा था, और बौद्ध धर्म की महायान शाखा का अनुयायी था। विद्वानों का मत है कि कनिष्क के ही समय में सर्वप्रथम बुद्ध मुर्तियां बननी आरंभ हुई थी। बुद्ध चरित्र तथा सौन्दरानंद नामक काव्यों के रचियता अश्वघोष तथा महायान शाखा के प्रवर्तक वसुमित्र इसके समकालीन थे। अतः इनके युग में बौद्ध धर्म की उन्नति स्वभाविक थी।

किन्तु Sarnath ki history में सब से गौरव पूर्ण युग गुप्तकाल में आया। भारतीय इतिहास के इस स्वर्णयुग में कला, शिल्प व्यवसाय, वाणिज्य, उद्योग, धर्म, साहित्य, विज्ञान आदि सभी दिशाओं में अत्यधिक उन्नति हुई, जिसकी पूरी छाप sarnath की कला पर पड़ी। इतना ही नहीं इस युग में Sarnath North India में एक प्रकार से कला का सर्वप्रधान केन्द्र था। परंतु सभ्यता के इस उत्कृष्ट युग में तोरमाण और मिहिरकुल के संचालन में हूणों ने इस देश पर आक्रमण किये और North India के शक्तिशाली गुप्त साम्राज्य को छिन्न भिन्न कर डाला। बौद्ध धर्म के शत्रु होने के कारण Sarnath भी इनके आक्रमणों से न बच सका। इसका प्रमाण गुप्तकाल की उन मूर्तियों से मिलता है। जो खुदाई में बुरी तरह से ठूंसी तथा जली हुई अवस्था में प्राप्त हुई थी। सौभाग्य से आक्रमण की यह भयंकर घटा अधिक स्थायी न रही और 530 ईसा मे बालादित्य एवं यशोवर्मन जैसे प्रतापी नरेशों के नेतृत्व मे भारतीय राजाओं ने मिहिरकुल को परास्त कर Indian Border के बाहर भगा दिया।

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इसके कुछ ही काल बाद मौखरी और वर्धनों का राज हुआ और वे North India मे शक्तिशाली हुए। हालांकि इस काल का भी को प्रमाणिक लेख प्राप्त नहीं हो सका है। किंतु अन्य स्मारकों द्वारा यह स्पष्ट हो जाता है, कि एक बार फिर से Sarnath ने अपनी गरिमा प्राप्त कर ली थी। इस बात की पुष्टि प्रसिद्ध चीनी यात्री हवेनसांग के यात्रा लेखो से भी सिद्ध होती है। हवेनसांग ने अपने लेख में Sarnath को Kannoj के राजा के अधीन एवं बहुत सम्पन्न स्थिति में बताया है। यह राजा निश्चित ही महाराज हर्षवर्धन था।

हर्षवर्धन के बाद लगभग एक शताब्दी तक एक बार फिर Sarnath ka itihas अन्धकार मे डूब जाता हैं। जिसका कारण यह माना जाता हैं कि यह युग राजनितिक असंतोष का था। 9वी शताब्दी के मध्य में कन्नौज के सिंहासन पर प्रतिहार वंश के प्रमुख नरेश आदिवराह, मिहिरभोज लगभग 50 वर्ष तक आसीन रहे। और उनके बाद उनके उत्तराधिकारी जो महमूद गजनवी के आक्रमण के समय तक सत्तारूढ़ रहें। लेकिन इतने Long time तक शासन शक्ति होते हुए भी प्रतिहारों द्वारा स्थापित कोई स्मारक सारनाथ आर्किलॉजिकल साइट से अब तक प्राप्त नहीं हो सका है। हां इतना जरूर है पालवंशी नरेशों के समय की कई मूर्ति खुदाई में उपलब्ध हुई है। इनम सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण 1083 ईसवीं की एख बुद्ध मूर्ति की लेखनुमा चरण चौकी है। जिससे ज्ञात होता हैं कि महिपाल के शासनकाल 992-1040 ईसवीं में स्थिरपाल और बसंतपाल नाम के दो भाईयों ने धर्मराजिका स्तूप का जीर्णोद्धार कराया था और बुद्ध की यह मूर्ति बनवाई थी। इसी से यह सिद्ध होता है कि 1026 ईसवीं मे Sarnath पाल नरेशों की राज्य सीमा मे था।

संम्भवतः मध्य प्रदेश पर सम्राज्य स्थापित करने के लिए महिपाल नरेश को गंगेरदेव कलचुरी 1030-1041 ईसवीं के साथ एक लम्बा संघर्ष करना पड़ा था। जिसमें विजय गंगेरदेव के पक्ष मे रही, इसकी पुष्टि गंगेरदेव के पुत्र कर्णदेव 1041-1070 ईसवीं के समय के एक शिलालेख से होती है। जिसमें Sarnath को 11वी शताब्दी में कलचुरी साम्राज्य का एक अंग कहा गया है। अधिकार परिवर्तन के इस काल में सारनाथ पर अंतिम शासन कन्नौज के गहड़वालों का रहा। खुदाई में मिले एक शिलालेख से ज्ञात होता है कि गोविंद चंद 1114-1154 ईसवीं की रानी कुमार देवी ने सद्दर्मचक्रजिन विहार नामक एक विशाल संघाराम की रचना करवाई थी। जो South India के मंदिरों के अनुरूप थी। गोविंद चंद के पौत्र जयचंद्र, मुहम्मद बिन साम द्वारा 1193 ईसवीं में पराजित हुए थे, और उसी समय उसके सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक ने काशी पर आक्रमण करके वहां के अनेक मंदिरों को नष्ट कर दिया था। संम्भवतः उसी ने सारनाथ के मंदिर और विहारों को भी नष्ट किया होगा। खुदाई मे प्राप्त खंडहरों की स्थिति से यह स्पष्ट हो जाता है कि Sarnath के वैभव की की यह दुर्दशा ध्वंसकारी आक्रमणों के कारण ही हुई थी। जिसके कारण वहां का गौरव अंधकार में विलीन हो गया था। और किसी को पता नहीं था कि सारनाथ कहां स्थित है?।

 

सारनाथ का वर्तमान ऐतिहासिक परिचय केवल संयोग मात्र है। सन् 1794 ईसवीं में काशी नरेश चेत सिंह के दीवान जगत सिंह ने काशी में जगतगंज नामक मौहल्ला बनवाने के लिए मजदूरों को अशोक स्तूप को खोदकर ईंट पवं पत्थर लाने के लिए भेजा। उस समय खुदाई में प्राप्त अवशेषों ने पुरातात्विक विशेषज्ञों का ध्यान उस ओर आकर्षित किया और व्यस्थित रूप से खुदाई का कार्य सर्वप्रथम जनरल कर्निघम ने 1836 ईसवीं कराया। जनरल कर्निघम ने अपने व्यक्तिगत खर्च से धमेख स्तूप, चौखंडी स्तूप तथा एक मध्यकालीन विहार के कुछ भागों को खोदकर निकाला। क्योंकि इससे पहले किसी को पता नहीं था कि धमेक स्तूप कहा है या चौखंडी स्तूप कहा है? इसके अतिरिक्त उन्हें कुछ मूर्तियां भी यहां से मिली, जो अब कोलकाता के संग्रहालय मे है। इसके बाद मेजर किटों के परिश्रम से एक तथा एक विहार और प्रकाश में आये। 1901 ईसवीं में पुरातत्व विभाग के स्थापित हो जाने पर Sarnath में ओर भी व्यापक ढंग से खुदाई हुई। जिसके फलस्वरूप सात विहारों तीन बडे स्तूपों एक मुख्य मंदिर और अशोक स्तंभ के अवशेष प्राप्त हुए।

चौखंडी स्तूप

Sarnath के मुख्य क्षेत्र से लगभग आधा मील पहले सड़क की बायीं ओर ईटों का एक विशाल ढूह देखने को मिलता है। जिसे चौखंडी के नाम से जाना जाता हैं। वास्तव में यह एक प्राचीन स्तूप का अवशेष है। इस चौखंडी स्तूप के बारें में कहा जाता है कि इसी स्थान भगवान बुद्ध की अपने प्रथम पांच शिष्यों से भेंट हुई थी। जब वे Sarnath में अपना प्रथम उपदेश सुनाने आये थे। उसी घटना की स्मृति में इस स्थान पर एक स्तूप बनवाया गया था। जिसके ध्वस्त अवशेष आज चौखंडी स्तूप के नाम से विश्वविख्यात है। सन् 1836 में जनरल कर्निघम ने इस स्तूप के मध्य में कुएँ जैसी एक सुरंग खोदी थी। परंतु उन्हें कोई भी मूल्यवान साम्रगी प्राप्त न हो सकी। परंतु 1905 ईसवीं में श्री ओरटेल के यहां खुदाई कराने पर इस स्तूप की अठकोनी चौकी एवं ऊंचे चबुतरे मिले थे। चौखंडी स्तूप के खंडहर पर जो अठपहलू शिखर है। उसे सन् 1588 मे सम्राट अकबर ने अपने पिता हुमायूं की सारनाथ यात्रा की स्मृति में बनवाया था। और जिसका उल्लेख उत्तरी द्वार पर लगे हुए प्रस्तर पर उत्तकीर्ण लेख में किया गया है।

विहार संख्या 6

मुख्य सडक़ से आधा मील उत्तर की दिशा की ओर चलने पर Sarnath का मुख्य स्थल मिलता है। यहां दाहिनी ओर सडक़ के धरातल से नीचे एक बौद्ध विहार के भग्नावशेष है। जिसे 1851-52 ईसवीं में श्री किटों ने सर्वप्रथम खोदकर निकाला था। इस विहार की ऊपरी बनावट मध्य काल की है। हांलाकि उसके नीचे गुप्त और कृपाण काल के विहारो के भी भग्नावशेष दबे है। इस बात की पुष्टि यहां से प्राप्त मिट्टी की मुहरों एवं ईटों से होती है। जो उस समय की है। इन विहारों के ठीक मध्य मे सुंदर और मीठे पानी का एक प्राचीन कुआँ है। जिससे ज्ञात होता है यहां से पीने के पानी की जरुरत पुरी होती थी। आगंन के चारों ओर स्तंभों पर आधारित लम्बा बरामदा था, जिसके पीछे भिक्षुओं के रहने की कोठरियां बनी है। इस विहार का प्रवेशद्वार पूरब दिशा की ओर था। खंडहरों की दीवारों की मोटाई से विहार का दो या तीन मंजिला होना सिद्ध होता हैं

विहार संख्या 7

विहार संख्या 6 के पश्चिम दिशा की ओर लगभग उसी प्रकार का एक दूसरा विहार भी मिलता है। यह लगभग 8 वी शताब्दी का होगा। परंतु उसके नीचे भी इससे पूर्व कालीन विहारो के खंडहर दबे पड़े है।

धर्मराजिका स्तूप

विहार संख्या 7 से थोडी दूर उत्तर की ओर चलकर धर्मराजिका स्तूप सारनाथ के खंडहर है। सन 1794 ईसवीं मे काशी नरेश के दीवान जगतसिंह द्वारा यह स्तूप गिरा दिया गया था। और उसके गर्भ में से प्राप्त एक सेलखड़ी की पेटी में रखे हुए गौतमबुद्ध के शरीर चिन्हों को गंगा मे बहा दिया गया था। सन 1835 मे जनरल कर्निघम को इन स्तूपों मे से प्रस्तर की एक और मंजुपा मिली जिसमें उपरोक्त सेलखड़ी वाली पेटिका किसी समय रखी हुई थी। बहुत कुछ नष्ट भ्रष्ट हो जाने पर 1907-8 ईसवीं मे की गई खुदाई से सर जॉन मार्शल ने इस स्तूप के क्रमिक निर्माणों का पूरा पूरा पता लगाया। खुदाई से ज्ञात हुआ है कि मूल धर्मराजिका स्तूप का निर्माण सम्राट अशोक ने ही करवाया था। उसके बाद इसका सर्वप्रथम जीर्णोद्धार कृपाण काल में हुआ था। धर्मराजिका स्तूप की दूसरी मरम्मत हूणों के आक्रमण के बाद 6 शताब्दी में की गई थी। और इसी दौरान इसके चारों ओर 16 फुट चौड़ा एक प्रशिक्षण पथ भी बढ़ा दिया गया था। संम्भवतः 7 वी शताब्दी मे स्तूप को सुदृढ़ बनाये रखने के लिए इस प्रशिक्षण पथ को ईटों से भर दिया गया और चारों दिशाओं में पत्थर की सात डंडों वाली सीढियां स्तूप तक पहुंचने के लिए लगवा दी गई थी। तीसरी बार धर्मराजिका स्तूप का जीर्णोद्धार बंगाल नरेश महीपाल ने महमूद गजनवी के आक्रमण के लगभग दस साल बाद 1026 ईसवीं मे करवाया। इस स्तूप का अंतिम पुनद्वार लगभग 1114 ईसवीं में धर्म चक्र जिन विहार के निर्माण के समय का ज्ञात होता है। तब से 1764 ईसवीं तक यह अपनी जीर्णशीर्ण अवस्था में चलता रहा जब तक कि जगतसिंह को ईटों के लालच ने न दबाया।

मूलगंध कुटी विहार

धर्मराजिका स्तूप के सामने उत्तर दिशा में Sarnath के मध्य मे लगभग 22 फुट ऊंचे मुख्य मंदिर के चिन्ह दिखाई पडते है। हवेनसांग ने इसका उल्लेख मूलगंध कुटी विहार के नाम से अपने यात्रा लेख में किया है। और इसकी ऊंचाई 200 फुट बताई है। कला की दृष्टि से यह मंदिर गुप्तकाल का मालूम होता है। परंतु इसके चारों ओर निर्मित मध्यकालीन फर्शों एवं अनियमित रूप से लगे हुए सादे एवं उत्कीर्ण प्रस्तरों को देख कर कुछ विद्वान इसे 8वी शताब्दी का बना मानते है। मंदिर के गर्भगृह में किसी समय स्वर्ण आभायुक्त भगवान बुद्ध की काय-परिमाण प्रतिमा स्थापित थी। शायद यह उस समय का गोल्डन मंदिर सारनाथ हो। मंदिर में आने के लिए तीन ओर साधारण तथा पूर्व की ओर सिंह द्वार बने थे। कालांतर में मंदिर में कमजोरी आने के कारण प्रदक्षिणा पथ को ईटों से भरकर छत तक मिला दिया गया और इस प्रकार प्रवेश के लिए केवल सिंह द्वार ही शेष रह गया। अन्य तीनों द्वारों के भीतर से बंद हो जाने से दीवार से घिरे स्थानों को छोटे छोटे मंदिरों का स्वरूप दे दिया गया और उनमें मूर्तियां स्थापित कर दी गई। मंदिर के सामने एक विशाल खुला हुआ प्रांगण था। जिसमें उपासना के समय समस्त भिक्षु समुदाय एकत्रित होता था। कालांतर में इस प्रागंण के श्रद्धालुओं में बहुत से छोटे छोटे मंदिरों एवं स्तूपों का अपनी इच्छानुसार निर्माण कर लिया।

नौपदार वेदिका

मुख्य मंदिर के दक्षिण भाग वाली कोठरी मे साढे नौ फुट लम्बी चौडी एक वेदिका रखी है। श्री आरटेल ने मुख्य मंदिर की खुदाई में निकाला था।वेदिका एक ही पत्थर से काटकर बनाई गई है। और उस पर मौर्यकालीन चमकदार पालीश है। अनुमान किया जाता है कि यह वेदिका आरम्भ में धर्मराजिका स्तूप पर हर्मिका के रूप में थी। किन्तु कालांतर में किसी दुर्घटना के कारण नीचे गिर गई थी। वेदिका पर कुषाण कालीन ब्रह्मी लिपि और पाली भाषा में दो लेख खुदे है। जिससे ज्ञात होता है कि ईसवीं सन् की तीसरी शताब्दी मे यह वेदिका सर्वास्तिवादी समुदाय के आचार्यों द्वारा भेंट की गई थी। यह वेदिका मौर्यकाल की शिल्पकला का बहुत उत्कृष्ट उदाहरण है।

अशोक स्तंभ

मुख्य मंदिर से पश्चिम की ओर सम्राट अशोक के प्रसिद्ध स्तंभ का निचला भाग देखने को मिलता है। इस समय इसकी ऊचाई 7फुट 9 इंच है। हालांकि इसी के पास रखे शेष खंडों से इसकी न्यूनतम ऊचाई 55 फुट ज्ञात होती है। खुदाई करने से पता चला है कि इस स्तंभ की स्थापना एक भारी पत्थर की चौकी पर की गई थी। चुनार प्रस्तर का अत्यंत औपदार यह स्तंभ अपनी निराली पालिश के कारण कभी कभी ग्रेनाइट का होने का भ्रम पैदा कर देता है। स्तंभ के पिछले भाग में तत्कालीन पाली भाषा और ब्रह्मालिपि में अशोक का प्रसिद्ध लेख उत्तकीर्ण है। अशोक के लेख के अतिरिक्त इस स्तंभ पर दो और लेख उत्तकीर्ण है। इनमें से एक अश्वघोप नाम के किसी राजा के शासन काल का है, और दूसरा जो लिखावट में चौथी शताब्दी का जान पडता है, वात्सुपुत्रीक संम्प्रदाय की सम्मीतीय शाखा के आचार्यों द्वारा उत्तकीर्ण है।

धर्मचक्र जिन विहार

मुख्य मंदिर से उतर की ओर थोडा ऊपर चलकर एक विशाल बौद्ध विहार के अवशेष देखने को मिलते है। इस विहार को गढ़वाल नरेश गोविंद देव चंद की रानी कुमार देवी ने बनवाया था। कुमार देवी धर्म से बौद्ध थी और दक्षिण भारत की रहने वाली थी। अतः उन्होंने इस विहार की रचना दक्षिण शैली के अनुसार गोपुरम आदि से अलंकृत करके करवाई थी। विहार का मुख्य द्वार भी पूर्व की और था। इसके पश्चिम मे 100 गज लंम्बी एक सुरंग है। जिसके अंत मे एक छोटा सा मंदिर है। संम्भवतः यह मंदिर कुमार देवी का अपना नीजी मंदिर था। जिसमे वे पूजा करने के लिए गुप्त मार्ग से आया जाया करती थी। धर्म चक्र जिन विहार की खुदाई में एक शिलालेख प्राप्त हुआ था। जिससे इसके बनाने वाले का नाम और काल आदि का पूर्ण रूप से पता चलता है।

संघाराम संख्या 2,3,4

धर्मचक्र जिन विहार के क्षेत्र के नीचे तीन पूर्वकालीन अन्य विहारो के अवशेष दबे है। ये संघाराम कुषाण काल में निर्मित हुए थे। और इनका वर्तमान स्वरूप गुप्तकाल में दिया गया था। इससे सिद्ध होता है की ये संघाराम पहले पांचवीं शताब्दी में हुणों द्वारा नष्ट किये गए थे। और जीर्णोद्धार के बाद 11वी शताब्दी में दोबारा मुसलमान आक्रमणकारियों द्वारा नष्ट किये गए थे।

धमेक स्तूप

संघाराम का क्षेत्र समाप्त होने पर थोडा आगे दक्षिण की ओर एक विशाल स्तूप है। जो धमेख स्तूप के नाम से विख्यात है। संम्भवतः धमेक शब्द की उतपत्ति धर्मचक्र से है। धमेक स्तूप का निर्माण सम्राट अशोक के समय मैं हुआ था। इसका प्रथम संवर्दन कुषाण काल मे किया गया था और इसको अपना वर्तमान रूप गुप्तकाल पांचवीं शताब्दी मे प्राप्त हुआ था। धमेख स्तूप की ऊंचाई 143 फुट तथा घेरा 93 फुट है। पूरा धमेक स्तूप ईंट व गारे से बना हुआ है। नीव से 37 फुट की ऊंचाई तक मोटे और भारी पत्थरों से जडा हुआ है। जो प्रत्येक तह पर लौह चापो से आबद्ध है। धरातल से लगभग 20 फुट की ऊचाई पर 8 फुट चौडी शिलापट्टो की एक पेटी है। जिस पर जिस पर नंद्यावर्त सदृश विविध आकृतियों की सजावट उत्तकीर्ण है। दक्षिण की ओर इन पुष्पांकित गोठो के बीच कमल पर आसीन एक स्थूल यक्ष की मूर्ति निर्मित है। और इसी के पास ऊपर की ओर एक कंचछप तथा हंसपुरम भी बने है। इसके अतिरिक्त स्तूप मे आठ ऊभार दार रूख भी है। जिनमे मूर्तियों के रखने के ताखे बने है। जिनमे से कुछ मे अब भी मूर्तियों की पीठिकाये रखी है।


जैन मंदिर

धमेक स्तूप के दक्षिण मे ऊची चार दीवारियो से घिरा एक जैन मंदिर है। जो जैनियों के 11 वे तीर्थंकर श्रेयांशनाथ जी के इसी स्थल पर संन्यास लेने एवं मृत्यु होने की पुण्य स्मृति में सन् 1824 ईसवीं में बनवाया गया था।


सारनाथ महादेव का मंदिर

यह मंदिर सारनाथ म्यूजियम से लगभग आधा मील पूर्व की ओर स्थित है। यह देखने मे किसी स्तूप के अवशेषों पर बना हुआ है। किवदंतियों के अनुसार इसकी स्थापना शंकराचार्य जी ने अपने दिग्विजय काल में की थी, जो भी हो पर इतना निश्चय है कि यह मंदिर प्राचीन है। जैसा कि इसके वास्तुकाल से विदित होता है। यहा प्रति वर्ष श्रावण के महिने मे मेला भी लगता है।


सारनाथ संग्रहालय

जैन मंदिर की सीढियों से नीचे सडक़ पर सामने सारनाथ का संग्रहालय भवन दिखाई पडता है। जिसका निर्माण 1910 मे सम्पन्न हुआ था। सारनाथ म्यूजियम चार कक्षों मे विभाजित है। जिसमें सारनाथ से खुदाई मे प्राप्त मूर्तियां आदि कालक्रम के अनुसार प्रदर्शित है। यह म्यूजियम सारनाथ के मुख्य स्थलों में से एक है। और इसमे देखने लायक अनेक वस्तुएं, प्रतिमाएं, शिलालेख, व अवशेष है।

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